आज चाँद की तस्दीक हो गई, 27 जून को पहली मुहर्रम

सैफी हुसैन
सैफी हुसैन, ट्रेड एनालिस्ट

इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना मुहर्रम चांद के दीदार के साथ शुरू हो गया है। यह महीना मुस्लिम समुदाय के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस दौरान हजरत इमाम हुसैन (अ.स) और उनके 72 साथियों की कर्बला में दी गई शहादत को याद किया जाता है। इस माह के दौरान ताजिए और शोक की परंपरा विशेष रूप से देखने को मिलती है, और साथ ही हिजरी साल 1447 की शुरुआत भी होती है।

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कर्बला की घटना: बलिदान और संघर्ष की अमर गाथा

सन 61 हिजरी में कर्बला के मैदान में हजरत इमाम हुसैन ने अत्याचारी शासक यज़ीद के खिलाफ आवाज उठाई थी। विशाल सेना के सामने इमाम हुसैन के सिर्फ 72 साथियों का काफिला खड़ा हुआ था, जो सत्य, इंसानियत और न्याय की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे थे। 10 मोहर्रम को हजरत इमाम हुसैन और उनके साथियों ने अपने प्राणों का बलिदान दे दिया, जिसे आशूरा के रूप में जाना जाता है। इस दिन को हर साल मुस्लिम समुदाय के द्वारा शोक और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है।

ताजिए की परंपरा: एक प्रतीकात्मक श्रद्धांजलि

ताजिए की परंपरा का आरंभ कर्बला के बाद हुआ, जब तैमूरलंग ने इमाम हुसैन के रोजे की जियारत के लिए यात्रा नहीं की थी। उनके वज़ीरों ने कर्बला के रोजा मुबारक की एक प्रतिकृति तैयार की, ताकि तैमूरलंग जियारत कर सकें। यही परंपरा आज तक ताजिए के रूप में जीवित है, जिन्हें श्रद्धालु जुलूस के रूप में निकालते हैं। इन ताजियों में इमाम हुसैन की शहादत की याद ताजा होती है, और यह श्रद्धा और अकीदत का प्रतीक बन चुके हैं।

लखनऊ में मुहर्रम: विशेष परंपराएं और श्रद्धा

लखनऊ में मुहर्रम को इमामबाड़ों में विशेष श्रद्धा और अकीदत के साथ मनाया जाता है। शहर के विभिन्न मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में शहीदी कलाम सुनाई देने लगते हैं और माहौल में एक गहरा शोक देखने को मिलता है। यहां की ताजिए की परंपरा, मातम के आयोजन विशेष रूप से आकर्षण का केंद्र होते हैं। इस दौरान लखनऊ के इमामबाड़ों में इबादत और शोक सभाएं आयोजित की जाती हैं, जो श्रद्धालुओं के दिलों में गहरी श्रद्धा और सम्मान पैदा करती हैं।

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